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नई दिल्ली: बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे के सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई को लेकर दिए गए बयान पर सियासी बवाल मचा हुआ है। निशिकांत दुबे ने शनिवार (19 अप्रैल) को कहा था कि अगर कानून सुप्रीम कोर्ट ही बनाएगी तो संसद को बंद कर देना चाहिए। इस पर विपक्षी दलों ने कहा कि यह न केवल न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पर हमला है, बल्कि संसद और संविधान की आत्मा पर भी सवाल खड़े करता है।

ये एंटायर पोलिटिकल हिप्पोक्रेसी की मिसाल: कांग्रेस नेता

यह बयान आते ही सोशल मीडिया से लेकर सियासी गलियारों तक भारी प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गईं। विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया तो वहीं बीजेपी अध्यक्ष ने सामने आकर साफ किया कि बीजेपी का निशिकांत दुबे के बयान से कोई लेना-देना नहीं है। बीजेपी के पल्ला झाड़ने पर कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने इस मुद्दे पर पोस्ट करते हुए कहा कि भाजपा सांसदों की तरफ से भारत के मुख्य न्यायाधीश पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणियों से भाजपा के निवर्तमान अध्यक्ष की ओर से खुद को अलग करने की कोई विशेष अहमियत नहीं रह जाती।

जयराम रमेश ने बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की उस प्रतिक्रिया पर निशाना साधा, जिसमें उन्होंने कहा था कि “निशिकांत दुबे के विचार उनके निजी हैं, पार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं है।” कांग्रेस नेता ने तंज कसते हुए कहा कि निवर्तमान भाजपा अध्यक्ष का स्पष्टीकरण डैमेज कंट्रोल के अलावा कुछ नहीं है। इससे कोई मूर्ख नहीं बनेगा। यह एंटायर पोलिटिकल साइंस नहीं बल्कि एंटायर पोलिटिकल हिप्पोक्रेसी की मिसाल है। उन्होंने पूछा कि निवर्तमान भाजपा अध्यक्ष ने अपनी ही पार्टी के उच्च संवैधानिक पद पर बैठे एक अति विशिष्ट व्यक्ति द्वारा न्यायपालिका पर बार-बार की जा रही अस्वीकार्य टिप्पणियों पर पूरी तरह चुप्पी साध रखी है। क्या इन टिप्पणियों पर उनका कोई मत नहीं है? क्या भाजपा इन बयानों का समर्थन करती है?

अगर संविधान पर इस तरह के निरंतर हमलों को प्रधान मंत्री मोदी की मौन स्वीकृति नहीं है तो इस सांसद के ख़िलाफ़ कड़े कदम क्यों नहीं उठा रहे? क्या नड्डा जी ने इन्हें कारण बताओ नोटिस दिया?

निशिकांत दुबे से जुड़ा मुद्दा एक बड़ी बहस की शुरुआत

निशिकांत दुबे से जुड़ा मुद्दा अब केवल एक बयान नहीं रह गया है, बल्कि इसने एक बड़ी बहस की शुरुआत कर दी है, जो संविधान, उसकी व्याख्या और उसमें निहित शक्तियों की सीमाओं को फिर से परिभाषित करने की मांग कर रहा है। एक तरफ सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों के जरिए सामाजिक न्याय, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा कर रही है। वहीं दूसरी ओर कुछ राजनीतिक बयान न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल उठाकर संस्थाओं के बीच टकराव की स्थिति बना रहे हैं।

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